हे हरि सुखधाम, क्या बखान करुँ, करुणा तेरी ૧/૧

हे हरि सुखधाम, क्या बखान करुँ, करुणा तेरी;
सब पर तुम सदा, बरसाते रहे हो, करुणा तेरी;
	पशु की बजाय, मनुष्य किया अहो, करुणा तेरी;
	सदा अन्न जल, देते रहे हो, करुणा तेरी...पशु की० टेक.
परंतु भूल के तुमको अहं ले, फिरता रहा हूँ मैं;
विषय में अंधा बनके सुख मानकर, भोगता रहा हूँ मैं;
	झूठे जग को सच्चा मानकर, अपनाता रहा हूँ मैं;
	प्यारे फिर भी, दया रखते हो, करुणा तेरी...पशु की० १
हर जनम ऐसी मूरखता, सदा करता रहा हूँ मैं;
सुख दु:खरुप नदियां में, सदा बहता रहा हूँ मैं;
	तुम्हारी मूरति को तो अभी भी, भूलता रहा हूँ मैं;
	तो फिर भी तुम मदद, करते रहे हो, करुणा तेरी...पशु की० २
अभी तो इस जनम में, अनुभव कर रहा हूँ मैं;
रहकर साथ सुख देते हो, वही देखता रहा हूँ मैं;
	तुम्हारी ओर ही खिंचते हो वो, कृपा मान रहा हूँ मैं;
	अब तो ज्ञान को वही, भवपार करेगी, करुणा तेरी...सदा० ३ 
 

મૂળ પદ

हे हरि सुखधाम, क्या बखान करुँ, करुणा तेरी

રચયિતા

જ્ઞાનજીવનદાસજી સ્વામી-કુંડળ

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પ્રશાંત પટેલ - ઈન્દોર
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